श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।। 1.1.15 ।।
पदविभाग
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम् तत्त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये
अन्वय
(पूषन्) हे सब आश्रितों का भरण-पोषण करने वाले नारायण (हिरण्मयेन) ज्योतिर्मय (पात्रेण) पात्र से (सत्यस्य) सत्यस्वरूप आप सर्वेश्वर का ( मुखम् ) श्रीमुखारविन्द ( अपिहितम् ) ढका हुआ है (सत्यधर्माय) सत्य परब्रह्म के उपासक मेरे लिये (दृष्टये) अपना दर्शन कराने के निमित्त ( त्वम् ) तुम (तत्) उस श्रीमुख को (अपावृणु) आवरण रहित पर दो ॥५॥
अथवा
( पूषन् ) हे सूर्यान्तर्यामिन् परमेश्वर (हिरण्मयेन) हिरण्य सदृश भोग्यवर्ग (पात्रेण) परमात्माविषयक वृत्ति प्रतिरोधक ढक्कन से (सत्यस्य) स्वरूप विकार रहित जीवात्मा का ( मुखम् ) मुख के समान अनेक इन्द्रियअवष्टम्भक मन ( अपिहितम् ) आच्छादिव है (सत्यधर्माय) सत्यजीत के धर्मभूत (दृष्ट) आपके दर्शन के लिये ( त्वम्) हषीकेश आप तत् जीव फे उस मुखस्थानीय मन को
विशेषार्थ-
हे सब आश्रितों के भरण-पोषण करने वाले परब्रह्म नारायण! यहाँ ‘पूषन्’ पद नारायण वाचक है । ज्योतिर्मय सूर्यमण्डलरूप पात्र से सत्य-स्वरूप परब्रह्म नारायण का मुखारविन्द ढका हुआ है
सत्य का अर्थ
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । (तेत्ति० उप० वल्ली २ अनुवा०१ श्रु० १) सत्य ज्ञान अनन्त ब्रह्म है॥१॥
इस श्रुति से परब्रह्म नारायण होता है क्योंकि महाभारत में लिखा है
‘सत्त्ववान सात्विकः सत्यः सत्य धर्मपरायणः ।’ (महाभा० अनुशासन प० विष्णु श्लोक ० १०६)
सत्त्ववान् १, सात्विक २, सत्य ३, सत्यधर्मपरायण ४ ये नारायण के नाम हैं ॥१०६॥
सत्य परब्रह्म नारायण के उपासक मेरे लिए अपना दर्शन कराने के निमित्त तुम उस मुखारविन्द को आवरणरहित कर दो।
अथवा हे सूर्यान्तर्यामिन् परब्रह्म नारायण |
बृहदारण्यकोपनिषद् में लिखा है
‘य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयन्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः
जो सूर्य में रहने वाला सूर्य के भीतर है जिसे सूर्य नहीं जानता सूर्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर सूर्य का नियमन करता है, वह तेरा अन्तर्यामी आत्मा अमृत है ॥॥
इस अन्तर्यामी ब्राह्मण की श्रुति से और- ‘
शास्त्रीयदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् ॥ (शारीरिक मे० अ० १ पा० १ सू० ३१)
इस सूत्र से ‘पूषन्’ पद का अर्थ सूर्यान्तर्यामी नारायण होता है ।
हे सूर्यान्तर्यामिन् परमेश्वर! हिरण्यसदृश भोग्यवर्ग परमात्मा विषयकवृत्तिप्रतिरोधक पात्र से स्वरुपविकाररहित जीवात्मा के मुख के समान अनेक इन्द्रियअवष्टम्भक मन आच्छादित है सत्य जीव के धर्मभूत आपके दर्शन के लिए हृषीकेश आप जीव के मुखस्थानीय मन को खींच कर हटा लीजिए । श्रुति में ‘सत्यं चानृतं च’ (ते० उ० वल्ली० २ अनु ६) और (छान्दो० अ० १ ब० २ श्रु० ३) जीव और अचेतन ॥३॥
इस श्रुति से ‘सत्य’ शब्द का अर्थ जीवात्मा होता है । संकलनार्थ यह है कि हे नारायण! सोने के समान मन लुभावने विषय रूपी माया के परदे से जीव का मन ढका हुआ है, हे सबके पोषक उस ढकन को मुझ सत्यपरायण उपासक के लिये तुम उठा दो जिससे मैं दर्शन कर सकूँ।
ईशोपनिषद् की पन्द्रहवीं श्रुति बृहदारण्यकोपनिषद् (अ० ५ ब्रा० १५ रु० १) में है और शुक्लयजुर्वेद (अ० ४० मं० १७) में भी है परन्तु यजुर्वेद संहिता में ‘योसावादित्ये पुरुषः सोसावहम ऐसा मंत्र के उत्तरार्ध में पाठभेद है ॥१५॥
अडियेन माधव श्रीनिवास रामानुज दास
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