श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहरसंभवात् ।
इति शुश्रुम धीराणां येनस्तद्विचचक्षिरे ॥१३॥
पदविभाग
अन्यत् एव आहुः संभवात् अन्यत् आहुः असंभवात् इति शुश्रुम धीराणाम् ये नः तत् विचचक्षिरे
अन्वयार्थ
( संभवात् ) केवल समाधि रूप ब्रह्मानुभूति से ( अन्यत् ) दूसरा ही ( एव ) निश्चयकर के मोक्ष-साधन है ( आहुः ) ऐसा उपनिषद् ग्रन्थ कहते हैं और ( असंभवात् ) केवल योग के विरोधी की निवृत्तिरूप असंभूति से ( अन्यत् ) दूसरा ही ( आहुः ) मोक्ष-साधन है ऐसा कहते हैं ( ये ) जो पूर्वाचार्य (नः) प्रणिपातादिक से अच्छी प्रकार समीप में प्राप्त हमारे लिए ( तत् ) उस मोक्षसाधन को (विचचक्षिरे) विचार करके भली-भाँ ते उपदेश दिये थे ( धीराणाम् ) श्रीमन्ना रावण के ध्यान में तत्र उन वीर पुरुषों के वचन को (इति) इस प्रकार (शुश्रुम) हम जानते हैं॥
विशेषार्थ–
केवल समाधिरूप ब्रह्मानुभूति से दूसरा ही मोक्ष-साधन है ऐसा रहस्य ग्रन्थ कहते हैं और समाधि के अङ्गभूत निषिद्धनिवृत्ति से ही दूसरा मोक्ष-साधन है ऐसा उपनिषद ग्रन्थ कहते हैं । जो पूर्वाचार्य प्रणिपातादिक से सम्यक् उपसन्न हमारे लिये उस मोक्ष-साधन को विचार कर अच्छी प्रकार से उपदेश दिये थे श्रीलक्ष्मीनाथ के ध्यान में तत्पर उन धीर पुरुषों के वचनामृत को इस प्रकार हम सुन चुके हैं ।
ईशोपनिषद् की तेरहवीं श्रुति शुक्ल यजुर्वेद (अ० ४० मं० १०) में भी है ॥१३॥
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