श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥११॥
पदविभाग
विद्याम् च अविद्याम् च यः तत् उभयं सह अविद्यया तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते
अन्वयार्थ
(यः) जो यथार्थ ब्रह्मविद्या के उपदेश से युक्त पुरुष ( विद्याम् ) ब्रह्मोपासनरूपज्ञान को (च) और ( अविद्याम् ) ब्रह्मोपासन के अङ्गभूत वर्णाश्रम विहित कर्म को ( तत् ) इन ( उभयं ) दोनों को ( सह ) एक ही साथ ( वेद) अङ्गाङ्गिभाव से अनुष्ठान करने योग्य यथाथतः जान लेता है वह प्रपन्न पुरुष (अविद्यया) ब्रह्मविद्या के अंगभूत वर्णाश्रमविहित कर्म से (मृत्युम् ) ज्ञानोत्पत्तिविरोधी प्राचीन कर्म को (तीर्त्वा ) निर्विशेष दूर पार करके (विद्यया) परब्रह्मोपासनरूप ज्ञान से ( अमृतम् ) परब्रह्म नार.यण को (अश्नुते) प्राप्त कर लेता है ॥११॥
विशेष अर्थ-
यथार्थ ब्रह्मविद्या के उपदेश से युक्त भक्त पुरुष ब्रह्मोपासना रूप ज्ञान को और ब्रह्म विद्या के अङ्गभूत वर्णाश्रम विहित कर्म को एक ही साथ अङ्गाङ्गि भाव से एक ही पुरुष करके अनुष्ठान करने योग्य जानता है इससे वह भक्त ब्रह्मो शासन के अङ्गभूत वर्णाश्रम विहितकम से विद्योत्पत्ति के प्रतिबन्धक पुण्यपापरूप प्राचीन कर्म को समूल उल्लंघन करके परब्रह्म उपासनारूप ज्ञान से मोक्ष को पाता है। हारीत स्मृति में भी लिखा है
‘उभाभ्यामपि पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः।
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते ब्रह्म शाश्वतम् ॥ (हा० ०७ श्लो०१०)
जैसे दोनों पक्षों से आकाश में पक्षियों की गति होती है वैसे ही ज्ञान और कर्म इन दोनों से शाश्वत ब्रह्म प्राप्त होता है ॥ १॥
और विष्णु पुराण में लिखा है
‘इयाज सोऽपि सुबहून् यज्ञान ज्ञानव्यपाश्रयः। ब्रह्मविद्यामधिष्ठाय तर्तुं मृत्युमविद्यया ॥”
(विष्णु पु० अ० ६ अ० ६ श्लो० १२)
शास्त्रश्रवणजन्य ब्रह्मज्ञान वाले उस जनक राजा ने भी निदिध्यासनरूपा ब्रह्मविद्या ज्ञान को आश्रयण करके विद्याङ्गभूत कर्म से भक्तयुत्पत्तिविरोधी प्राचीन कर्म को पार करने के लिए ज्योतिष्टोमादिक बहुत से यज्ञों को किया ॥ १२ ॥
ईशोपनिषद् की ग्यारहवीं श्रुति शुक्ल यजुर्वेद (अ० ४० मं० १४) में भी है । इस श्रुति को श्रीपूज्य पाद भगवद् रामानुजाचार्य ने
‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ॥
के श्रीभाष्य में उद्धृत किया है ॥
अडियेन माधव श्रीनिवास रामानुज दास
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