श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥८॥
पदविभाग
सः पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम कविः मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतः अर्थात् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः
अन्वयार्थ –
( सः ) सर्वभूतान्तरात्मब्रह्मदर्शी वह प्रपन्न पुरुष ( शुक्रम् ) स्वप्रकाश परम तेजोमय ( अकायम् ) कर्मकृतहेयशरीररहित ( अव्रणम् ) कर्मजन्य शरीर का अभाव होने से क्षतरहित या प्राकृत छिद्ररहित (अस्नाविरम् ) प्राकृत हेय शिराओं से रहित (शुद्धम् ) अज्ञानादिदोष के गन्ध से रहित शुद्ध (अपापविद्धम) शुभाशुभकर्मसंपकशून्य परब्रह्म नारायण को ( पर्यगात् ) अच्छी प्रकार से प्राप्त कर जाता है। जो उपासक ( कविः) व्यासादिकों के समान ब्रह्मस्वरूप रूप दिव्य गुणादि प्रकाशक प्रबन्ध विशेष के निर्माता अथवा सर्वद्रष्टा ( मनीषी ) बुद्धिमान् अथवा स्थितप्रज्ञ (परिभूः) कामक्रोधादिकों का तिरस्कार करने वाला (स्वयंभूः) अन्यनिरपेक्षसत्तावाला स्वात्मदर्शी पुरुष (याथातथ्यतः) यथार्थ विचारकर ( शाश्वतीभ्यः ) अनादि ( समाभ्यः) वर्ष अथवा कालसे ( अर्थात् ) प्रष्टव्य प्रणवादिक अर्थोंको ( व्यदधात् ) हृदय से धारण किया ॥८॥
अथवा
(सः) वह परब्रह्म नारायण (शुक्रम् ) स्वप्रकाश ( अकायम् ) अशरीर ( अकरणम् ) छिद्र रहित ( अस्नाविरम् ) नाड्यादिरहित (अपापविद्धम् ) पापरहित (शुद्धम् ) शुद्ध जीवात्मा को ( पर्यगात् ) सब प्रकार से भीतर बाहर व्याप्त होकर स्थित रहता है। जो परब्रह्म नारायण ( कविः) भूत भविष्य और वर्तमान को जाननेवाला या श्रीपाश्चरात्रादि कविता करनेवाला (मनीषी ) मनका नियन्ता (परिभू🙂 सर्वव्यापी सबसे श्रेष्ट ( स्वयंभूः ) स्वेच्छा से प्रकट होने वाला ( याथातथ्यतः) यथार्थ विचारकर ( अर्थात् ) समस्त अर्थों को ( शाश्वतीभ्यः ) निरन्तर ( समाभ्यः ) वर्षों के लिये अर्थात् प्रलय पर्यन्त रहने के लिए ( व्यदधात् ) बनाया या उत्पन्न किया ॥८॥
विशेषार्थ
सर्वभूतान्तरात्मब्रह्मदर्शी पुरुष स्वप्रकाश कर्मकृतहेयशरीर रहित दिव्यमङ्गलमय विग्रहयुक्त कर्मजन्य शरीर का अभाव होनेसे अक्षत प्रकृतशिरारहित अज्ञानादि दोषगन्धरहित अशन पानादि षडूर्मिरहित पुण्य पापरुप कर्मसंपर्कशून्य परब्रह्म नारायण को सर्वत्र प्राप्त कर लेता है। तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है
‘ब्रह्मविदाप्नोति परम् । ( तै० आनन्दव० २ अनुवाक १ श्रु०१)
ब्रह्मवेत्ता परब्रह्म नारायण को प्राप्त करता है ||१||
‘अकायम्’ पद से इस श्रुति में प्राकृत हेय शरीर परमात्मा का निषेध किया गया है। दिव्य मङ्गलमय विग्रह का निवेश नहीं किया गया है। क्योंकि लिखा है
‘यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि ।’ ( ईशो श्रु० १६)
जो तुम्हारा परम मङ्गलमय रूप हैं उस तुम्हारे स्वरूप को मैं देखता हूँ ॥१६॥
‘या ते तनू (प्रश्नोप० प्रश्न २ श्रु० १२ )
जो तुम्हारा शरीर है ॥१२॥
‘यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णम् ।’ (मुण्डक ० मु० ३ खं० १ रु० ३ )
जिस समय में साधक पुरुष हिरण्याकार परमात्मा को देखता है ॥३॥
‘तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः । अमृतो हिरण्मयः।’ (तैत्ति० व० १ अनुवा० ६ श्रु० १
उसमें यह मनोमय अविनाशी हिरण्मय पुरुष है ॥१॥
‘य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते
हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात्सर्व एव सुवर्णः ।’ (छा० उ० अ० १ प्र० १ खं० ६ श्रु० ६)
‘तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी ॥७॥
जो यह सूर्य के भीतर हिरण्मय पुरुष दिखायी देता है उसकी दाढी सुवर्ण की है तथा केश भी सुवर्ण के हैं और नख से लेकर चोटी तक सब ही हिरण्मय हैं ॥६॥ उस परब्रह्म नारायण के जैसे कोई सूर्य की किरण से खिला हुआ लाल कमल हो वैसे ही दोनों नेत्र है॥७॥
‘भारूपः सत्यसंकल्प आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः।’
(छा० उ० अ० प्र० ३ खं० १४ श्री ०२)
वह प्रकाशरूप सत्यसंकल्प आकशात्मा सर्वकर्मा सर्वकाम सर्वगन्धा सर्वरसरूप है ॥ २ ॥
‘तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपं यथा महारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यचिर्यथा पुण्डरीकम्।
(बृह० अ० २ ब्रा० ३ श्रु०६)
उस परब्रह्म नारायण का रूप ऐसा है जैसा हल्दी से रँगा हुआ वस्त्र हो, जैसा पाण्डु रंग का ऊनी वस्त्र हो, जैसा इन्द्रगोप हो, जैसी अग्नि की ज्वाला हो और जैसा पुण्डरीक कमल हो ॥ ६ ॥
‘हस्ते विभर्ष्यस्तवे’ (श्वेताश्व ०३ श्री ०६)
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।। ८॥
‘सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ १४ ॥
हाथ में फेंकने के लिये वाण को धारण किये हो ॥६॥
आदित्य के समान वर्णवाले अन्धकार से अत्यन्त दूर ।। ८॥
वह परम पुरुष नारायण हजारों सिरवाला हजारों नेत्रवाला हजारों पैरवाला है ॥ १४ ॥ ‘
‘अपापविद्धम्’ इस पद में स्थित पाप से पुण्यका भी ग्रहण होता है, क्यों कि लिखा है
‘न जरा न मृत्यु शोको न सुकृतं न दुष्कृतं सर्वे पाप्मानोऽतो निवर्तन्ते ॥ (छांदोग्य० अ० ८ खं ४ श्री ०१) आत्मा के न जरा न मृत्यु न शोक न पुण्य न पाप ही प्राप्त हो सकते हैं समस्त पाप इससे निवृत्त हो जाते हैं ॥१॥
‘एष आत्मा अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः॥’ (छांदोग्य० अ० ८ खं० १ श्रु०५)
यह परमात्मा पुण्य तथा पाप से शून्य है और जराहीन, मृत्युहीन, शोकरहित, भोजनेच्छारहित, पिपासाशून्य, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है ॥५॥
इस छान्दोग्य की श्रुतिसे प्राकृत हेय षड्गुणों का निषेध कर दो कल्याणगुणों का विधान किया गया है। जो ब्रह्मवेत्ता श्री वाल्मीकि, श्री वेदव्यास आदि के समान ब्रह्मस्वरूप रूप दिव्यगुणादि प्रकाशक प्रबन्धों का निर्माण और भगवत्स्वरूप गुण की स्मृति के अभ्याससे तथा भगवदन्य विषय के वैराग्य से प्रतिष्ठित प्रज्ञा वाला और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य का अनादर करनेवाला तथा अन्यनिरपेक्ष सत्तावाला स्वात्मदर्शी योगी यथार्थ विचारकर निरन्तर काल या वर्ष से प्रष्टव्य अर्थ प्रणव का जप तथा प्रणव का अर्थ का अनुभव सब अन्तराय शमन होने के लिये हृदयसे धारण किया। क्योंकि पातंजलयोगदर्शन में लिखा है
‘तस्य वाचकः प्रणवः ।’
‘तजपस्तदर्थभावनम् ॥ (योग द० अ० १ प० १ स० २७-२८॥
उस नारायण का वाचक प्रणव है ॥ २७॥ प्रणव का जप करना तथा प्रणवार्थ की भावना करना ॥ २८॥
प्रणवार्थ माण्डूक्योपनिषद् में कहा जायेगा । अथवा ईशोपनिषद् की आठवीं श्रुति में जितने, प्रथमान्त ‘स:’ आदि परमात्मा परक हैं। और ‘शुक्रम्’ इत्यादि जितने द्वितीयान्त पद हैं वे परिशुद्ध जीवात्मा परक है। तब इस श्रुति का यह अर्थ होता है कि वह परब्रहा नारायण प्राकृतशरीररहित, क्षतरहित, शिरारहित, स्वप्रकाश, पुण्य-पापरहित, परिशुद्ध, जीवात्मा के भीतर और बाहर व्याप्त होकर स्थित रहता है। जो परमात्मा सर्वदर्शी, श्रीपञ्चरात्रादि आगम प्रणेता तथा सब मनके नियन्ता सबसे श्रेष्ठ सर्वव्यापी स्वेच्छासे श्रीराम कृष्ण अवतार धारण करनेवाला यथार्थ विचार कर समस्त कार्य पदार्थों को निरन्तरवर्ष के लिये अर्थात् प्रलय पर्यन्त रहने के लिए बनाया। क्योंकि लिखा है
‘अजायमानो बहुधा विजायते । (यजुर्वेद ० अ० ३१ म० १६)
वह नारायण नहीं जन्मता हुआ भी बहुत प्रकारसे प्रकट होता है ॥ ११ ॥
‘संभवाम्यात्ममायया । (गीता अ० ४ श्लो० ६)
मैं अपनी इच्छा से प्रकट होता हूँ ॥६॥
ईशावास्योपनिषद् की आठवीं श्रुति शुक्ल यजुर्वेद (अ० ४० म ०६) में भी है । यति सार्वभौम श्री रामानुजाचार्य ने “तत्तु समन्वयात् ।” (शारीरकमी० अ० १ पा० १ ०४) श्री भाष्य में ईशोपनिषद् की आठवीं श्रुति के पूर्वार्ध को उद्धत किया है | ८ ॥
अडियेन माधव श्रीनिवास रामानुज दास
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