श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥५॥
पदविभाग
तत् एजति तत् न एजति तत् दूरे तत् उ अन्तिके तत् अन्तः अस्य तत् उ सर्वस्य अस्य बाह्यतः
अन्वयार्थ-
(तत् ) वह परब्रह्म नारायण ( एजति ) काँपता है ( तत् ) वह परब्रह्म (न) नहीं ( एजति ) काँपता है ( तत् ) वह परब्रह्म (दूरे) अज्ञानियों के दूर है ( तत् ) वह परब्रह्म (उ) निश्चय करके (अन्तिके) भक्तों के अत्यन्त समीप है ( तत् ) वह परब्रह्म (अस्य) इस चर अचरस्वरूप (सर्वस्य ) सब ब्रह्माण्ड के (अन्तः) भीतर है ( तत् ) वह परब्रह्म नारायण निश्चय करके (अस्य) इस स्थावर जंगमका स्वरूप ( सदस्य) समस्त जगत् के (बाह्यतः) बाहर भी है ॥५॥
विशेषार्थ-
‘तत्’ नारायण का नाम है यह श्रीमद्भगवद्मीता में लिखा है
‘ओं तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।’ (गीता अ०१७ श्लोक २३)
ॐ तत् सत् ऐसा तीन प्रकार का ब्रह्म का निर्देश-नाम बतलाया गया है ॥२३।
किं यत्त्पदमनुत्तमम् ।( विष्णुसहस्त्रनाम श्लोक ६१ )
किम् १, यत् २, तत् ३ पदम् ४, अनुत्तनम् ५ ॥ ६१ ॥ ये नारायण के नाम है ।
वह परब्रह्म नारायण सर्वत्र स्थाणु है इससे नहीं चलता है। वह परब्रह्म नारायण लीलाविभूति में श्रीराम, श्रीकृष्ण आदिक अवतार लेकर चलता है । वह परब्रह्म आसुर स्वभाव वाले अज्ञानियों को करोड़ों जन्मों में भी आश्रय करके प्राप्त नहीं होता है इससे अत्यन्त दूर है और वह परब्रह्म देवस्वभाववाले भक्तों के हृदय में रहने से तथा वहाँ पर दर्शन देने से अत्यन्त समीप है। ऐसा शौनक महर्षि ने भी कहा हैं
‘पराङ्मुख ये गोविन्दे विषयासक्तचेतसः । तेषां तत्परमं ब्रह्म दूराद् दूरतरे स्थितम् ॥१॥
तन्मयत्वेन गोविन्दे ये नरा न्यस्तचेतसः। विषयत्यागिनस्तेषां विज्ञेयं च तदन्तिके ॥ २ ॥
जो विषयासक्तचित्तवाले गोविन्द भगवान से विमुख हैं उन सबों के अत्यन्त दूर परब्रह्म नारायण स्थित है ॥१॥ भगवन्मय होकर जो नर गोविन्द भगवान् में चित्त समर्पण कर दिये हैं उन विषयत्यागी भक्त पुरुषों के अत्यन्त समीप में वे नारायण रहते हैं ॥२॥
कठोपनिषद में लिखा है
‘आत्मस्य जन्तो निहितं गुहायाम् । (कठो० अध्या० १ व २ रु० २०)
नारायण इस जीव के हृदय रूपी गुफा में स्थित है ॥२०॥
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । ( श्वे० अ० ५ श्रु० ११)
एक नारायणदेव सब प्राणियों में छिपा हुआ सर्वव्यापी समस्त जीवों की अन्तरात्मा है ।॥११॥ वह परब्रह्म नारायण सर्वान्तर्यामी होने से समस्त विश्व के भीतर है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में लिखा है
य आत्मा सर्वान्तरः ।'(बृह ० अ० ३ रा० ४ रु० १ )
जो नारायण सब के भीतर है ॥१॥
सर्वव्यापक होने के कारण वह परब्रह्म नारायण इस सकल स्थावर जंगमस्वरूप संसार के बाहर भी विराजमान है। इस श्रुति में ‘उ’ निर्धारण अर्थ में प्रयुक्त है। क्योंकि लिखा है
‘तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः।’ (श्वे० अ०४ श्रु०२)
वह निश्चय करके अग्नि है, वह सूर्य है, वह वायु है और वही चन्द्र है ॥२॥
निर्धारणार्थक ‘उ’ का प्रयोग हुआ है।
महानाराणोपनिषद् में इस श्रुति में लिखा है
‘अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ॥ (महाना ० १३।२)
समस्त जगत् के भीतर और बाहर व्याप्त होकर परब्रह्म नारायण स्थित हैं ॥२॥
ईशोपनिषद् की पाँचवीं श्रुति शुक्ल यजुर्वेद ( अ० ४० म० ५) में भी है ॥५॥
अडियेन माधव श्रीनिवास रामानुज दास
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