श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वादधाति॥४॥
पदविभाग
अनेजत् एकम् मनसः जवीयः न एनत् देवाः आप्नुवन् पूर्वम् अर्षत् तत् धावतः अन्यान् अत्येति तिष्ठति तस्मिन् अप: मातरिश्वा दधाति
अन्वयार्थ-
( अनेजत् ) परब्रह्म नहीं कांपने वाला ( एकम् ) प्रधानतम अद्वितीय (मनसः) वेद वाले मन से (जवीयः) अत्यन्त वेगवान् है ( देवाः) ब्रह्मा, रुद्र आदिक देवता ( पूर्वम् ) पहिले ( अर्षत् ) प्राप्त हुए (एनत् ) इस परमेश्वर को (न) नहीं (आप्नुवन् ) प्राप्त कर सकें (तत्) वह परब्रह्म नारायण (तिष्ठति ) सर्वत्र स्थिर रहता हुआ ( धावतः) दौड़ने वाले (अन्यान् ) दूसरों को ( अत्येति ) अतिक्रमण करके जाता है ( तस्मिन् ) उस परब्रह्म के होने पर (मातरिश्वा ) अन्तरिक्ष में गमन करनेवाला वायु ( अप: ) जल अर्थात् मित्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदिक को (दधाति ) धारणा करता है ||४||
विशेष अर्थ-
वह परब्रह्म नारायण किसी के भय से काँपने वाला नहीं है ।
‘भीषास्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूर्यः । भीषारमादग्निश्चेन्द्रश्च । मृत्युधार्वति पश्चमः ॥’ (तैत्तिरीय प० वल्ली २ अनुवाक ८)
इस नारायण के भय से वायु चलताहै, सूर्य डर से उदय होता है, इसके भय से अग्नि जलाती है और इन्द्र शासन करता है तथा पाँचवी मृत्यु दौड़ती है।
इस श्रुति के प्रमाण से नारायण के भय से सब काँपते हैं। वह अचल एक प्रधानतम है। उसके समान या अधिक कोई नहीं है। श्वेताश्वर उपनिषद में लिखा है
‘न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।(श्वे० अ०६ श्रु०८)
उस नारायण के समान और बड़ा कोई दूसरा नहीं दिखता है ॥८॥
संकल्प विकल्प करनेवाले अतिचंचल मन से भी अधिक वेगवाला नारायण है। क्योंकि देह में स्थित मन संकल्पमात्र से क्षणभर में बक्सर से काञ्ची में जा पहुंचता है। इससे लोक में प्रसिद्ध है कि मन बड़ा वेगवाला है। परन्तु सर्वगत होने से मन के पहुंचने से पहले ही कांचीपुरम में परमात्मा पहुँचा हुआ प्रतीत होता है। इससे मन से भी शीघ्रगामी नारायण हैं। विभु होने से पहले से प्राप्त परब्रह्म को कर्म से संकुचित ज्ञान वाले तैंतीस करोड़ देवता आचार्य उपदेश के बिना केवल अपनी बुद्धि से नहीं प्राप्त कर सके। छान्दोग्य पनिषद् में लिखा है
‘तद्यथा हिरण्यनिधि निहितमक्षेत्रज्ञा उपर्युपरि संचरन्तो न विन्देयुरेवमेवेमाः सर्वाः प्रजा अहरहर्गच्छन्त्य एतं ब्रह्मलोकं न विन्दन्त्यनृतेन हि प्रत्यूढाः।’ (छा० अध्या०८ खण्ड ३ श्रु०१)
जिस प्रकार पृथ्वी में गड़े हुए सुवर्ण के खजाने को उस स्थान से अनभिश पुरुष ऊपर ऊपर विचरते हुए भी नहीं जानते इसी प्रकार यह सारी प्रजा नित्यप्रति ब्रह्मलोकको जाती हुई उसे नहीं पाती क्योंकि यह अनृतके द्वारा हर ली गयी है ॥२॥
देवता के विषय में शुक्लयजुर्वेद संहिता में लिखा है
अग्नि देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रूद्रो देवता आदित्य देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिदेवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता । (य० अ० १४ म० २०)
अग्निदेव, वायुदेव, सूर्यदेव, चन्द्रदेव, आठ वसुदेव, ग्यारह रुद्रदेव, बारह आदित्य देव, उनचास मरुत देव, विश्वेदेव देव, बृहस्पति, इन्द्रदेव, वरुण देव हैं ॥२०॥
‘त्रया देवा एकादश त्रयस्त्रिंश सूरदास । बृहस्पति पुरोहित देवस्य सवितुः सर्वे देवा देवैरवन्तु मा ।’ (य० अ० २० मं० ११)
श्रेष्ठधन वाले ब्रह्मादिक तीन देव, ग्यारह रुद्रदेव, तैंतीस देव पुरोहित बृहस्पति देव प्रभृति सब देव नारायण की आज्ञा में वर्तमान होते हुए सत्य आदि देवों के साथ मेरी रक्षा करें ॥११॥
‘त्रीणि शतानि त्री सहस्राण्यग्निं त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् ।
औक्षन्घृतैरास्तृणन्बर्हिरस्मा आदिद्धोतारं न्यसादयन्त ॥ (य० अ० ३३ मं ०७)
तीन हजार तीन सौ उन्तालीस देवता अग्नि की परिचर्या करते हैं उन्होंने घृत से अग्नि को सींचा और इस अग्नि के लिए कुशा को आच्छादन करते हुए होता को होतृकम में नियुक्त किया ||७||
अथवा ”
त्रीणि शतानि” ३०० तीन सौ “त्रीणि सहस्राणि” ३००० तीन सहस्र गुणित अर्थात ६०००० त्रिंशत् नव च और उन्तालीस ६०००३६ देवता अग्नि की परिचर्या करते हैं।
अथवा
‘नवैवाङ्कास्त्रिबद्धाः स्युर्देवानां दशकगणैः । ते ब्रह्मविष्णुरुद्राणां शक्तीनां वर्णमेदतः ॥’
इस आगम प्रमाण से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की शक्ति रूप से ३३३३३३३३३ इतने देवता होते हैं |७||
अधिक देवता के विषय में जानना हो तो मेरी बनाई हुई ‘पुरुष सूक्त’ की ‘मर्मबोधिनी’ टीका को सज्जन लोग अवलोकन कर लें। वह परब्रह्म सर्वत्र स्थित रहता हुआ भी शीघ्र चलनेवाले काल, वायु आदि को अतिक्रमण करके चला जाता है। सर्वत्र नारायण स्थित हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में लिखा है
‘यः पृथिव्यां तिष्ठन् ॥ (बृह० अध्या ३ ब्राह्मण ७ ०३)
‘योऽप्सुतिष्ठन् ॥४॥ योऽग्नौ तिष्ठन् ॥१॥ योऽन्तरिक्षे तिष्ठन् ॥६॥ यो यो तिष्ठन् ॥७॥ यो दिवि तिष्ठन् ॥८॥ य आदित्ये तिष्ठन् ॥६॥ य दिक्षु तिष्ठन् ॥१०॥ यश्चन्द्रतारके तिष्ठन् ॥११॥ य आकाशे तिष्ठन् ॥१२॥यस्तमसि तिष्ठन् ॥१३॥ यस्तेजसि तिष्ठन् ॥१४॥ यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् ॥१५॥ यः प्राणी विष्ठा ॥१६॥ यो पाचि तिष्ठन् ॥१७॥ यश्चक्षषि तिष्ठन् ॥१८॥ यः श्रोत्रे तिष्ठन् ॥१६॥ यो मनसि तिष्ठन् ॥२०॥ यस्त्वचि तिष्ठन् ॥२१॥ यो विज्ञाने तिष्ठन् ॥२२॥ यो रेतसि तिष्ठन् ॥२३॥
जो नारायण पृथ्वी में रहता हुआ॥३॥ जो जल में स्थित रहता हुआ ||४|| जो अन्तरिक्ष में रहता हुआ ॥५॥ जो अग्नि में रहता हुआ ॥६॥ जो वायु में रहता हुआ ॥७॥ जो दिवलोक में रहता हुआ ८| जो आदित्य में रहता हुआ ॥ जो दिशा में रहता हुआ ॥१०॥ जो चन्द्रमा और ताराओं में रहता हुआ ॥११॥ जो आकाश में रहता हुआ ॥ १२॥ जो तम में रहनेवाला ॥ १३॥ जो तेज में रहने वाला ||१४|| जो समस्त भूतों में स्थित रहनेवाला ॥१५॥ जो प्राण में रहनेवाला ॥१६॥ जो वाणी में रहनेवाला ॥ १७॥ जो नेत्र में रहनेवाला ॥१८॥ जो कानमें रहनेवाल ॥१६॥ जो मनमें रहनेवाला ॥२०॥ जो त्वचा में रहता हुआ ॥ २१॥ जो आत्मा में रहता हुआ ॥२२॥ जो वीर्य में रहता हुआ ॥२३॥
सर्वावास उस परब्रह्म नारायणमें अवस्थित अन्तरिक्ष में गमन करनेवाला वायु, मेघ, ग्रह, तारा आदिक को धारण करता है। महाभारत में लिखा है
द्यो: सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥’ (महाभारत अनुशासनपर्व सहस्त्रनाम० श्लो० १३४)
चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र के सहित द्युलोक, आकाश, दिशायें, पृथ्वी और समुद्र महात्मा वासुदेव भगवान् के वीर्य से धारण किये गये हैं ॥१३४॥
‘एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसंमेदाय ।’ (बृहदा० अ० ४ ब्रा० ४ श्रु० १२)
यह परब्रह्म नारायण इन लोकों की मर्यादा भङ्ग न हो इस प्रयोजनसे इनको धारण करनेवाला सेतु है ॥ २२ ॥
ईशोपनिषद् की चौथी श्रुति शुक्ल यजुर्वेद (अ० ४ मं०४ ) में भी है। परन्तु पूर्वमर्शत्’ ऐसा पाठ है अर्थात् तालु शकारयुक्त है ॥४॥
अडियेन माधव श्रीनिवास रामानुज दास
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